Monday 27 September 2010

ना जाने

ना जाने कितनी लाशे बिछी हैं सपनो की अरमानो की मेरे दुसरो के हाथ 
कुछ अरमान ऐसे भी हुए जिनका गला हमने खुद ही घोटा और नहीं छोड़ा तड़पने तक साथ 
कुछ तड़पते आरमान, अब  भी दिल और दिमाग मैं बसे हुए ही हैं शायद
या उनकी छवी सी मन मैं बस गए हैं और वो कब का दम तोड़  दिए हैं ...जा चुके हैं मेरी इस दुनिया से शायद
पर ये निरा मन नजाने क्यों उन सपनो को अरमानो की सडती  लाश की पहरेदारी करता रहता हैं 
कुछ अरमान नए आते हैं, कुछ नए खवाब  देखूं तो..... नजाने कौन उनका कतल करता हैं 
कभी लगता इन सब के पीछे कोई साज्ज़िश तो नहीं ??
कहीं कोई कर रहा इस बन्दे की आज़माइश तो नहीं 
ना जाने इतने सपने इतने अरमान क्यों आते हैं इस गरीब के मन मैं
और झूठे मूठे से इन खयालो से ये गरीब अमीर हो जाता है
किसी दूसरी सी ही दुनिया मैं खो जाता हैं ...
ज़िन्दगी पहेली सी बनती जाती हैं .,,,, साली ये अरमानो  की लाश बस सड़ते ही जाती हैं
नए अरमा नए ख्वाब देखता हूँ बेखबर  नयी लाशे नए कतल करता हूँ... करवाता हूँ ...भर भर कर 
फिर भी कहाँ आता हूँ मैं  बाज़, नए अरमानो को जीवन मैं भरता हूँ बस यूह करता हूँ अपनी ज़िन्दगी का आगाज़