Saturday, 19 December 2009

सोच.....अजीब

एक आवाज़ सी आई ...पलट के देखा कोई नहीं था, सोचा किसी दोस्त ने पुकारा होगा या कोई रिश्तेदार होगा
तभी दिमाग से आवाज़ आई, अरे भाई ...रिश्ते नातो की सारी डोर तो तू पहले ही तोड़ आया हैं, अब पलट के क्या होगा, ..........सोच में पडा और .....ये सब लिख बैठा मैं ,
सबसे अलग सबसे दूर हो गया मैं, सबे मिलता था , हस्त खेलता था, अब खामोश हो गया हूँ मैं ,
बदलना चाहता नहीं था, पर बदल गया हूँ मैं, दूर जाना नहीं चाहता था पर दूर आ गया हूँ मैं
चेहरे पे हँसी रखता हूँ , हँसता हूँ - हसता हूँ , दिखता हूँ टेंशन नहीं हैं, पर घबराता हूँ, अब दुखी रहता हूँ मैं
याद तो बहुत कुछ हैं पर, आब उन यादो को भूलता जा रहा हूँ मैं ,
कहने को नए दोस्त बनाये हैं, उन दोस्तों मैं पुराने यारु की छवी ढूँढता हूँ मैं
कहीं ख़ुशी मिलती है पल भर के लिए तो उसके बाद के गम को सोच कर....उससे खुस हो जाना भूल जाता हूँ मैं
कभी सोना भूलता हूँ, तो कभी जागना भूल जाता हूँ मैं,
जिनसे प्यार हैं, उनसे इज़हार भी नहीं कर पता हूँ मैं
कुछ करना चाहता हूँ, फिर से बदलना चाहता हूँ पर आब बदल नहीं पा रहा हूँ मैं
ये बदलाव कहीं फिर से उन छवी वाले दोस्तों से दूर न करदे.....और फिर से बिलकुल अकेला हो जाऊं मैं
सोचा था ख़ुशी का क्या कहीं भी मिल जाएगी, पर ख़ुशी भी हर किसी के साथ ख़ुशी बन के नहीं रहती और यही सब सोचता रहता हूँ मैं
दुसरे कुछ कहते हैं, कुछ दिल की बतलाते हिं, पर दिल का हाल कुछ भी बता नहीं पता हूँ मैं
अपने आप से केई वादे करता हूँ, फिर हर वादे को तोड़ता जाता हूँ मैं
सवालो से घिरा हुआ हूँ, जवाब चाहता हूँ मैं
किसी अपने की, आवाज़ - पुकार सुनना चाहता हूँ मैं

1 comment:

Anonymous said...

good post
keep writing::)